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मृतक आश्रित नियुक्ति उपहार नहीं, संकट में न्यूनतम राहत

प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि मृतक आश्रित कोटे में नियुक्ति बोनांजा, गिफ्ट या सिंपैथी सिंड्रोम नहीं है। यह कमाऊ सदस्य की मौत से परिवार के जीवनयापन पर अचानक आए संकट में न्यूनतम राहत योजना है। कहा कि लोक पदों पर नियुक्ति में सभी को समान अवसर पाने का अधिकार है। मृतक आश्रित नियुक्ति इस सामान्य अधिकार का अपवाद मात्र है, जो विशेष स्थिति की योजना है।
कोर्ट ने सहायक अध्यापक पिता की मौत के समय आठ वर्ष के याची को बालिग होने पर बिना सरकार की छूट लिए की गई नियुक्ति को निरस्त करने के मामले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया है। कोर्ट ने एकल पीठ के आदेश पर हस्तक्षेप से इन्कार करते हुए अपील खारिज कर दी। यह आदेश न्यायमूर्ति एसपी केसरवानी व न्यायमूर्ति विकास की खंडपीठ ने नरेंद्र उपाध्याय की अपील पर दिया है।

कोर्ट ने कहा आश्रित कोटे में नियुक्ति पाने का किसी को निहित अधिकार नहीं है, तुरंत मदद के लिए है। लंबे अंतराल के बाद नियुक्ति की योजना नहीं है। सरकार ने पांच साल के भीतर अर्जी देने का नियम बनाया है। इसके बाद राज्य सरकार को अर्जी देने में विलंब से छूट देने का अधिकार है। कोर्ट ने कहा मृतक आश्रित कोटे में श्रेणी या वर्ग विशेष या अपनी पसंद के पद पर नियुक्ति की मांग का अधिकार नहीं है।

मालूम हो कि याची के पिता ज्ञान चंद्र उपाध्याय सहायक अध्यापक की सेवा काल में सात जुलाई 1991 को मौत हो गई। स्नातक के बाद याची ने आश्रित कोटे में 2007 में नियुक्ति की मांग की। हाईकोर्ट ने बीएसए जौनपुर को निर्णय लेने का निर्देश दिया। इस पर उन्होंने 31 मार्च, 2010 को बिना सरकार की अनुमति लिए नियुक्ति कर दी। पांच मई 2012 को याची को नोटिस जारी की गई कि नियमों के विपरीत नियुक्ति रद क्यों न की जाय। जवाब नहीं दिया तो बीएसए ने याची की नियुक्ति निरस्त कर दी।

मृतक आश्रित की नियुक्ति परिवार की जीविका चलती रहे, इसलिए की जाती है। यह उत्तराधिकार में नियुक्तिपाने का हक नहीं है। नियुक्ति के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता।

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