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राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020:- सम्मान के जुमलों और हकीकत से जूझते शिक्षक

‘शिक्षकों के लिए ऊंचा सम्मान और शिक्षा के पेशे के ऊंचे दर्जे को एक बार फिर स्थापित करना होगा, ताकि सबसे उम्दा लोगों को इस पेशे में आने के लिए प्रेरित किया जा सके। हमारे बच्चों और देश का बेहतरीन भविष्य सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है कि शिक्षक अपने पेशे के लिए उत्साहित और सशक्त महसूस करें।’- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 (खंड 5.1)

आजादी के बाद यह पहली बार नहीं है कि शिक्षा नीति ने शिक्षकों के हालात के बारे में ऐसे ऊंचे इरादे जाहिर किए हों। सवाल यह है कि इन इरादों को जमीन पर उतारने के लिए नीति में क्या प्रावधान किए गए हैं? अगर नीति और प्रावधानों के बीच में विसंगतियां हैं, तो ये इरादे महज जुमले बन जाते हैं।

इस कसौटी पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की पड़ताल करना निहायत जरूरी है। बरसों से आंगनबाड़ी, स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय, सभी में बड़ी तादाद में शिक्षकों की नियुक्ति ठेके पर की जा रही है। आए दिन वे अपने सम्मान की लड़ाई के लिए आंदोलनरत रहने को मजबूर हैं। स्कूलों में शिक्षाबंदी होना आम बात है, जिससे न राजसत्ता को कोई फर्क पड़ता है, और न समाज के कुलीन वर्गों व जातियों को, चूंकि इन सबके बच्चे महंगे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। दुनिया के किसी भी विकसित मुल्क में अगर शिक्षकों को इस तरह बार-बार आंदोलनरत होना पड़ता, तो राजसत्ता की चूलें हिल जातीं, क्योंकि समाज के सभी तबकों के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं।

इसीलिए कोठारी आयोग (1966) ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि लोकतंत्र में ऐसे किसी स्कूल के लिए जगह नहीं हो सकती, जो फीस लेता हो। जाहिर है, फीस लेते ही शिक्षा में भेदभाव की शुरुआत हो जाती है। यह सब समझकर ही दुनिया के सभी विकसित मुल्कों ने अपनी स्कूल-व्यवस्था को सरकारी संसाधनों से चलाया। क्या भारत इस ऐतिहासिक वैश्विक अनुभव का अपवाद हो सकता है? 

कोठारी आयोग ने इसी समझदारी के आधार पर सभी वर्गों और जातियों के बच्चों के लिए सरकार द्वारा वित्त-पोषित समान स्कूल-व्यवस्था कायम करने की जोरदार सिफारिश की थी, और साथ में यह भी कहा था कि इस व्यवस्था में स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों तक शिक्षकों को सम्मानजनक वेतनमान एवं सेवा-शर्तों पर नियुक्त किया जाएगा। आज यह पूछना जरूरी है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 शिक्षकों के लिए उपरोक्त सिद्धांतों को स्वीकारती है या नहीं? हकीकत यह है कि यह नीति शिक्षकों की नियुक्ति और सेवा-शर्तों के कई ज्वलंत मुद्दों पर मौन है। 

यह नीति सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक के चुनावों, जनगणना व आपदा-राहत जैसे गैर-शैक्षणिक काम कराने पर भी पाबंदी नहीं लगाती, जबकि निजी स्कूलों के शिक्षकों को इनसे मुक्त रखती है। 

शिक्षकों और आंगनबाड़ी/ ईसीसीई कर्मियों के हालात तो अब और बदहाल हो जाएंगे। चूंकि सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के लिए लाजिमी होगा कि वे अपनी सेवाएं समूचे स्कूल कॉम्प्लेक्स में दें; यह नीति स्कूल कॉम्प्लेक्स के चलते ‘विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात’ को घटाने के रास्ते खोलती है; नियोक्ताओं को परख-अवधि (प्रोबेशन) बढ़ाने की इजाजत देती है, जिसका इस्तेमाल शिक्षकों के शोषण के लिए किया जाएगा; यह शिक्षकों का ठेकाकरण बढ़ाने के लिए ‘कार्यकाल ट्रैक’ प्रणाली को भी लागू करती है; यह नीति भर्ती और पदोन्नति, दोनों में पूरे सामाजिक न्याय के एजेंडे पर असर डालती है; यह विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के अकादमिक परिषद् और कार्यकारी परिषद् जैसे निर्वाचित निकायों की जगह कुलपति के ऊपर ‘बोर्ड ऑफ गवर्नर्स’ का नया प्रावधान करती है। इसके चलते शिक्षकों के लिए किसी अहम मुद्दे पर भी अपनी आवाज उठाना कठिन हो जाएगा। 

जब नई नीति में न समान स्कूल-व्यवस्था को खड़ा करने का कोई प्रावधान है और न ही शिक्षकों की भर्ती व पदोन्नति के लिए कोई न्यायपूर्ण समतामूलक व्यवस्था है, तो फिर नीति में व्यक्त उपरोक्त इरादा कि शिक्षकों को समाज में सबसे ऊंचा सम्मान और दर्जा मिलना चाहिए, गले नहीं उतरता। जाहिर है, हमें ऐसी शिक्षा नीति चाहिए, जो संविधान में निहित समानता, सामाजिक न्याय (आरक्षण समेत) और भेदभाव से मुक्त सिद्धातों की बुनियाद पर खड़ी की गई हो।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

✍️ अनिल सद्गोपाल
पूर्व डीन, शिक्षा संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय

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