नया साल आते ही बजट का शोर तेज हो जाता है। फरवरी की पहली तारीख को बजट पेश होगा और यह मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का आखिरी पूर्ण बजट होगा। इस बार कुछ मिलेगा, ऐसी उम्मीदें ज्यादा हैं। इसकी वजह यह है कि Demonetisation, GST, Corona and Ukraine crisis जैसी समस्याओं से जूझने के बावजूद सरकार की कमाई बढ़ती दिख रही है। दिसंबर के महीने में GST से 1,49,507 करोड़ रुपये की वसूली हुई। लगातार दसवें महीने यह आंकड़ा एक लाख चालीस हजार करोड़ के पार रहा और पिछले साल के मुकाबले यह 15 फीसदी ज्यादा है। चालू वित्त वर्ष में, यानी 1 अप्रैल से 17 दिसंबर तक प्रत्यक्ष कर के खाते में 13,63,649 करोड़ रुपये सरकारी खजाने में आए, जो पिछले साल के इसी समय से लगभग 26 प्रतिशत ज्यादा था। हालांकि, इस बीच सरकार का कर्ज भी बढ़ा है और जीडीपी के मुकाबले कर्ज का अनुपात 84 प्रतिशत पर पहुंच चुका है। मगर पश्चिमी देशों से मुकाबला करें, तो यह बोझ इतना भी नहीं है कि चलना मुश्किल हो जाए।
सरकार की कमाई और सामने चुनाव देखकर आम आदमी से लेकर industrialist तक, सभी इस बजट में कुछ मिलने की उम्मीद कर रहे हैं। सबसे ज्यादा मांग है, कर कटौती की। कई साल से मध्यवर्ग उम्मीद कर रहा है कि Finance Minister निर्मला सीतारमण उसके लिए कुछ राहत लेकर आएंगी। इस बार यह उम्मीद पूरी होने की संभावना प्रबल दिखती है। देश के सबसे तेजतर्रार उद्योग संगठन CII ने भी बजट से पहले के अपने सुझावों में मांग की है कि वित्त मंत्री को आयकर की दरें घटानी चाहिए। उसका कहना है कि इससे लोगों के हाथ में खर्च करने के लिए पैसा बचेगा, जिससे economy का चक्का दोबारा तेज करने में मदद मिल सकती है। आयकर में कटौती के और भी तर्क हैं, लेकिन सरकार के सामने सबसे बड़ा लक्ष्य विकास की रफ्तार बढ़ाना है। भारत की जीडीपी लगभग सवा तीन लाख करोड़ डॉलर पर पहुंच चुकी है, लेकिन जुलाई से सितंबर की तिमाही में इसकी बढ़त की रफ्तार उम्मीद से आधी रह गई थी। इसलिए यह रफ्तार बढ़ाना ही सबसे बड़ी चुनौती है, और यही देश की ज्यादातर समस्याओं का हल भी है।
Finance Minister साफ कर चुकी हैं कि इस बार का बजट पिछले बजटों से अलग नहीं होगा, बल्कि उसी सिलसिले को आगे बढ़ाएगा। उन्होंने उद्योग संगठन फिक्की के सालाना जलसे में कहा था कि यह अगले 25 साल की तैयारी है- 2047, यानी आजादी की शताब्दी तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की तैयारी। इसीलिए, ज्यादातर विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि बजट का मुख्य जोर गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं और आम आदमी की जिंदगी को बेहतर बनाने पर होगा। चुनाव के लिहाज से भी देखें, तो कर में छूट के मुकाबले गरीबों की कल्याण योजनाएं Political parties के लिए बेहतर नुस्खा साबित हुई हैं। मगर ऐसी योजनाओं के साथ संसाधनों का सवाल भी खड़ा होता है और उसका जवाब भी विकास की रफ्तार बढ़ाना ही है। इसके लिए लगातार मांग हो रही है कि सरकार खर्च बढ़ाए। सरकार ने चालू वर्ष में भी करीब 7.5 लाख करोड़ रुपये का ऐसा खर्च किया है, जिसे पूंजीगत व्यय, यानी नई संपत्ति खड़ी करने वाला खर्च कहा जाता है। यह बीते साल के मुकाबले करीब 35% ज्यादा है और जीडीपी का 2.9 प्रतिशत है। उद्योग संगठनों का मानना है कि इसे और बढ़ाकर जीडीपी के 3.3 से 3.9% तक पहुंचाने की जरूरत है, जिससे खपत बढ़ेगी और विकास तेज होगा।
दूसरी बड़ी जरूरत है, देश को आत्मनिर्भर बनाने की। इसको लेकर कुछ मांगें अलग-अलग औद्योगिक समूहों की हैं, जिनको सरकार बजट में राहत दे सकती है। इससे न सिर्फ विदेश व्यापार के मोर्चे पर फायदा होगा, बल्कि बेरोजगारी की समस्या से मुकाबला भी आसान होगा। ‘ease of doing business’ यानी कारोबार की राह आसान करना और ‘ease of living’ यानी इंसानी जिंदगी को बेहतर बनाना- ये दोनों इस सरकार की शब्दावली का हिस्सा हैं, और खासकर TAX के मोर्चे पर ये दोनों ही तबके शायद सबसे ज्यादा यही मांग कर रहे हैं कि उलझनों से छुटकारा मिल जाए। बड़े उद्योगपति और कारोबारी चाहते हैं कि टैक्स को लेकर खड़े होने वाले विवाद कम हो जाएं, जिसके लिए कानून में जहां कहीं भी गलतफहमी की गुंजाइश है, उसे साफ कर दिया जाए।
विदेशों में बसे लोगों, यानी Overseas Indians के लिए तो मसला थोड़ा और पेचीदा है। उनके सामने यह सवाल बना रहता है कि यदि भारत में भी उनकी कमाई हो रही है, तो टैक्स कब, कहां और कितना देना है? जिन देशों के साथ भारत का कर समझौता है, वहां की कमाई और भारत की कमाई पर भ्रम अब काफी कम हुआ है। पिछले बजट में foreign pension की कमाई पर भी सफाई आई थी, पर अब भी कुछ पेच बाकी हैं।
प्रवासी भारतीयों की संपत्ति भारत में किराये पर उठना भी आसान नहीं है, क्योंकि यहां किरायेदार की जिम्मेदारी बनती है कि वह किराये की रकम पर 30% TAX काटकर सरकारी खजाने में जमा करे। जिन लोगों को यह पता है, वे ऐसी जगह किराये पर लेने से बचते हैं। मगर ज्यादा बड़ी मुसीबत वहां है, जहां मकान मालिक और किरायेदार को इसकी जानकारी नहीं है। ऐसे में, बाद में नोटिस मिलने पर मुश्किल खड़ी होती है। और, अगर मकान मालिक जिस देश में है, वहां उसकी income tax भरने लायक नहीं है, तो फिर यहां TDS कटने के बाद उसे वापस लेने का झंझट भी उस पर भारी पड़ता है। अर्थव्यवस्था में प्रवासी भारतीयों का योगदान लगातार बढ़ रहा है। उनसे भारत आने वाली रकम पिछले साल 100 अरब डॉलर का आंकड़ा पार कर गई है। ऐसे में, वे भी उम्मीद करते हैं कि उन्हें और उनसे लेन-देन करने वालों को किसी झंझट में न फंसना पड़े।
दस साल से income tax slab में बदलाव नहीं हुआ है, इसलिए उसे बढ़ाने और deduct tax की मांग इस बार जोर पकड़ चुकी है। चुनाव देखते हुए इसकी उम्मीद भी तेज है। मगर अब एक और मुद्दा जुड़ गया है। विशेषज्ञ भी मान रहे हैं कि finance minister tax slab बढ़ाने का एलान करें, इसकी जगह उन्हें इसको महंगाई के साथ जोड़ देना चाहिए। इससे अनिश्चितता भी दूर हो जाएगी और लोगों को बार-बार टैक्स कम करवाने की दुहाई भी नहीं देनी पड़ेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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